बुश पर जो जूता चला उसका सिलसिला ९/११ की घटना से कही आगे आपना 'खोफ' बना गया , डर हर मुल्क के शासन करता को की "मेरा नंबर कब आयगा' . बुश कोई पहल शाशक नहीं जिसे जूता पड़ा हो ! तो फिर एसा क्या हुवा की , सिल्सिया दूर तक चल निकला
मुख्या मंत्री दरबार सिंह जी पर आज से ३० साल पहले , एक स्कूल टीचर ने अपना रोष थपड मार कर जाहिर किया था , मै इतिहस का यह पाना इसलिय खोल रहा हू , के जूता या थपड मरने वालो का वाह , या शोहरत पाने का लक्ष्य प्रापत हुवा ? क्यों के तर्क यही दिया जाता है - सब तमाशा है , नाम के लिय , शोहरत पाने के लिया - राजनीती मै आने केनिया
अगर हम गूगल की मद्दद ना ले तो शायद हम उन के नाम तक नहीं जानते जीनो ने जूते , थपड का इस्तेमाल किया , ना नाम हुवा, ना शोरत - पदवी मिली . तो फिर क्या मकसद होता है ?
"नोजवानो को गुस्सा आता है "
यह तरीका गलत है रोष प्रकट करने का - लोकतान्त्रिक नहीं है , समज में आता है जनता को , मगर यही हालात बुडापे मे सताय तो बुढा अत्मधा करता है , खुद को फँसी लगता है , लोकतन्त मरता है- यह शाशन करने वालो को क्या गुस्सा दिलाता है ?
यही गुस्सा Rahul Ghandi को उत्तेर प्रदश मै मायावती सरकार पर आता है , तो राहुल जूता नहीं मरते
लोकतंत्र अगर आज हम सबको बराबर के "सामाजिक -राजनातिक" संसाधन देती तो , याह नोजवान भी गुस्सा आने पर थपड नहीं मरते .
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